दूर दराज मे जुगनू के समान जलती बुझती रोशनी बहुत आशाएं जगाती हैं, महसूस होता है, ये जैसे जैसे नजदीक आएंगी, इनकी रोशनी बढती जाएगी, जो भाग् य के ठीक होते ही पुन: मेरे जीवन को सुखमय बनाएगी।
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वे यह कैसे ग़वारा कर सकते हैं कि उन् हें भी वही ‘ कलाकृति ' पसंद आए जो किसी भी राहचलते बुद्धू को अच् छी लगे! इसीलिए जैसे जैसे जनता आधुनिक कला को स् वीकार करती जाती है, ये नक् कू अब उस तरह की कला को पसंद करने लगे हैं जिसे जनता पसंद कर ही न सके-जैसे ‘ जलती बुझती रोशनी '.